¦शशि शेखर¦
आज जनता के लिए सबसे जरूरी है, उस नेता का अहंकार तोड़ना,
जो ये बोलता हो कि हम इस देश पर 50 साल शासन करने के लिए आए है.
मानो ये देश उनकी जागिर है, जनता उनका गुलाम है.
विचार: सुबह-सुबह बनारस के एक मित्र से बात हुई. हम दोनों ने मोदी सरकार की कई नीतियों-कार्यक्रमों की आलोचना की. मित्र ने बताया कि आ कर बनारस में गंगा का हाल देखो, गंगा के पानी से आचमन तो क्या उसमें नहाना भी मुश्किल है. सवालिया लहजे में अंत में, मित्र ने ही पूछा यार ये बताओ लेकिन, मोदी नहीं तो कौन? मैंने कहा, कोई भी. उसका जवाब था, राहुल तो पप्पू है.
तो सवाल है कि मोदी क्या है? महामानव या अवतारी पुरुष, नहीं. वो भी एक सामान्य नेता है, जिन्हें मीडिया और कॉरपोरेट ने असामान्य बना दिया. जिन्हें संघ ने समर्थन दे कर ताकतवर बना दिया. एक नेता के तौर पर, प्रधानमंत्री के तौर पर जब उनका मूल्यांकन होगा तब क्या लिखा जाएगा. यही कि उन्होंने मुफ्त उज्जवला योजना के तहत गैस बांटे. जिसमें कनेक्शन की राशि गरीबों से सब्सिडी छीन कर ली गई. या फिर ये कि 12 हजार रुपये में वन पिट शौचालय बनवा कर देश को स्वच्छ बना दिया और अवैज्ञानिक तरीके से बने वहीं वन पिट शौचालय 5 साल बाद जमीन और जमीन के भीतर के पानी को प्रदूषित करता चला गया.
एक ऐसा मजबूत नेता जिसे प्रचंड बहुमत मिला था, जिसे उसने नोटबंदी कराने और बैंक खाते खुलवाने में बर्बाद कर दिया. आने वाली पीढी किस रुप में याद करेगी, मौजूदा सरकार को, इसकी कल्पना करिए. इतने बहुमत और जनता से मिले समर्थन के बाद तो लोकतांत्रिक देश का एक नेता या तो तानाशाह की भूमिका में आ जाता है या फिर एक ऐसे उद्धारक के रूप में जिसे सदियों तक पूजा जाए. देश की एक भी मूल समस्या पर काम करने की जगह मौजूदा सरकार ने कोस्मेटिक सर्जरी कर खुद को सुन्दर दिखाने का काम किया है.
हां, ये सही है कि मीडिया और कॉरपोरेट गठजोड ने विपक्ष की साख को एक तरह से खत्म करने की साजिश की है. लेकिन, दुनिया कभी विकल्पहीन नहीं होती. समाज खुद विकल्प पैदा कर लेता है. नेता वहीं अच्छा है, जो सबकी सुन कर सरकार चलाए. सबको सुना कर और सिर्फ अपनी अंतरात्मा की आवाज पर सरकार चलाने वाले और किसी तानाशाह में कोई फर्क नहीं होता. नीतीश कुमार इसके बेहतरीन उदाहरण है, जिन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज की वजह से बिहार को एक बार फिर बर्बादी की कगार पर ला दिया है. ऐसी बर्बादी से बचने के लिए अगर उन्हें हटा कर तेजस्वी यादव या उपेन्द्र कुशवाहा को भी सीएम बनाना पडे, तो बना देना चाहिए.
रहा सवाल, मोदी नहीं तो कौन. तो इसका एक ही जवाब है. कोई भी…जनता अपना सांसद चुन ले और सांसद सदन का नेता. जो बेहतर होगा, जिसके पास ज्यादा सीटें होंगी, वो पीएम बन जाएगा. तो क्या ऐसा होना गलत होगा. बिल्कुल नहीं. अव्वल तो ये कि कोई नेता ये भ्रम न पाले कि देश वहीं चला रहा है. ये देश सदियों से खुद चलता आ रहा है, आगे भी चलता रहेगा. एक बढिया नेता वो है, जो सिर्फ उत्प्रेरक का काम करे. देश का, जनता का नीति-नियंता न बन बैठे. एक बेहतर पीएम वो जो अपने मंत्रिमंडल की बात सुने, अपने सांसदों की राय माने. जनता की आकन्क्षा को सुने. सिर्फ बोले न बल्कि सचमुच सबको साथ ले कर चले. जो भारत जैसे बहुभाषी, विविध संस्कृत वाले देश में “एक” नारा देने की गलती न करे. जो विदेश में भारत का नाम करने से पहले देश के लोगों की रोजी-रोटी-शिक्षा-स्वास्थ्य पर ध्यान दे.
दरअसल, मोदी नहीं तो कौन की अवधारणा भी मीडिया-कॉरपोरेट साजिश का परिणाम है. इस देश में कभी राम भी हुए थे, गांधी भी हुए थे, नेहरू भी हुए, इन्दिरा भी आई, सब चले गए. देश बना रहा. क्यों, इसलिए कि देश और इस देश का समाज कभी सरकारों और प्रधानमंत्रियों के भरोसे न रहा. आज जनता के लिए सबसे जरूरी है, उस नेता का अहंकार तोड़ना जो ये बोलता हो कि हम इस देश पर 50 साल शासन करने के लिए आए है. मानो ये देश उनकी जागिर है, जनता उनका गुलाम है. हमें नहीं चाहिए ऐसी सोच वाला नेता. भले हमें इसकी जगह किसी “पप्पू” को ही क्यों न अपना प्रधानमंत्री बनाना पड़े.
मित्र, मैं विकल्पहीन नहीं हूं. मैं उनमें से हूं जो एक्सीडेंट होने के बाद सबसे नजदीकी अस्पताल में इलाज कराने जाना पसन्द करेगा, बजाए इसके कि एक पांच सितारा अस्पताल के निर्माण का इंतजार किया जाए.