शिक्षा के गुणवत्ता का स्तर शिक्षकों की योग्यता पर निर्भर है. निजी विद्यालय में अधिकांश में शिक्षक नियुक्ति की कोई मानक प्रक्रिया नहीं होती. सरकारी संस्थानों में योग शिक्षकों का चयन सरकार की नीति और नीयत पर निर्भर करता है. जब नीति सही होगी तभी आदर्श स्थिति का निर्माण संभव है. अन्यथा भगवान ही मालिक है

अखिलेश कुमार झा
वरिष्ठ पत्रकार (akhileshkumarjha83@gmail.com)

हमारा भारत वर्ष प्राचीन काल से ही शिक्षा का प्रमुख केंद्र रहा है. इसी वजह से भारत को विश्वगुरु के रुप में प्रतिष्ठा मिली. यदि मिथिला के विशेष संदर्भ में बात करें तो स्पष्ट होता है कि मिथिला भी विद्या के अत्यंत महत्वपूर्ण केंद्र के रूप में प्रतिष्ठित रहा है. भारत को विश्वगुरु के आसन पर पहुंचाने में मिथिला का योगदान अति विशिष्ट रहा.

वैसे तो पूरे देश के शिक्षा की स्थिति लगभग समान ही है, अन्य देशों की तुलना में हमारी स्थिति चिंताजनक है. जब अपने प्रदेश को दृष्टि डालते हैं तो यह चिंता और बढ़ जाती है.

शिक्षा जीवन जीने की कला सिखाती है. जिज्ञासा शांत कराती है और जिज्ञासा उत्पन्न भी करती है. समान रूप से कुछ भी सिखाना शिक्षा है किंतु हम लोग शिक्षा का अर्थ वही समझ जाते हैं जो औपचारिक रूप से संस्थाओं में दी जाती है. उसके पश्चात प्रमाण पत्र दिया जाता हैं.

जीवन जीने की कला न तो किसी संस्था पर निर्भर रहता है और न ही किसी प्रमाणपत्र का मोहताज रहता है. प्राचीन काल की गुरुकुल परंपरा भारत की पहचान शिक्षा के केंद्र के रूप में करायी. इसके परिणाम स्वरुप हमारा देश विश्वगुरु के आसन पर विराजमान हो सका.

उस समय ना तो सत्ता की कृपा से शिक्षण संस्थान चलते थे और न ही व्यक्ति विशेष की कृपा से. इन शिक्षण संस्थानों का संचालन सामाजिक सहयोग से हुआ करता था. उन संस्थानों में छात्र-छात्राओं को पूर्णता मानवीय गुणों से युक्त बनाया जाता था जिसे सही अर्थो में मानव कहां जा सके. पुस्तकीय सैद्धांतिक ज्ञानों के अतिरिक्त अन्य सभी विधाओं में निपुणता भी वहां प्रदान की जाती थी. जो जीवन के लिए अनिवार्य हो और जिसमें शिष्यों की अभिरुचि रहती थी तथा समाज के सर्वांगीय उन्नति के लिए महत्वपूर्ण थे. शास्त्रों के साथ शस्त्रों की शिक्षा तथा संगीतकला, चित्रकला सहित बहुत कुछ. ऐसी जीवनोपयोगी कुछ शिक्षा परिवार में माता-पिता द्वारा भी दी जाती थी.

प्राचीन काल के उपरांत मध्य और आधुनिक काल में आरंभ हुई. शिक्षा व्यवस्था जो सरकारी धन द्वारा संचालित होने लगे. सरकारी धन पर निर्भर विद्यालयों के माध्यम से सत्ता पक्ष अपना एजेंडा समाज पर थोपने की कोशिश करने लगा. सत्ता के दबाव में आते ही देश की शिक्षा व्यवस्था अपने मूल लक्ष्य से भटकने लगी. इसके परिणाम स्वरुप इस व्यवस्था में मानव नहीं अपितु यंत्र मानव निर्मित होने लगे. जो सिर्फ अपने ही बारे में सोचते हैं.

कालांतर में प्रदूषित राजनीतिक क्रियाकलापों में शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त करने का काम किया. जो अभी तक एक खतरनाक परंपरा की भांति चल रहा है. .राजनीतिक कुचक्र ने तो सरकारी विद्यालयों को पंगु बना दिया और इन शिक्षण संस्थानों से सामाजिक विश्वास भी घटता चला गया.

सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को गैर शैक्षिक कार्यों में इस प्रकार उलझा दिया गया कि वह चाहकर भी छात्रों के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाते हैं. सरकारी शिक्षकों के बहाली की प्रक्रिया कुछ अपवादों को छोड़कर कठिन होती गई और उन्हें दी जानेवाली सुविधाओं में कटौती होती चली गई .

अनेक कारणों से सरकारी विद्यालयों में शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर गिरा साथ ही कदम कदम पर कुकुरमुत्तो की भांति शिक्षा की दुकानें फैल गए. दूसरी ओर यह भी एक विडंबना है कि व्यावसायिक व उच्च शिक्षा की गुणवत्ता सरकारी संस्थानों में उच्च स्तरीय बनी हुई है.

कुछ अपवादों को छोड़कर अधिकांश निजी विद्यालय अच्छी और गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा देने का काम करती है अपितु अभिभावको को इस भ्रम में रखती है. ये यह निजी संस्थाएं अभिभावक को लूटने का काम बड़ी निर्दयता पूर्वक करती है. यहां सीखने का काम कम और बेचने का काम ज्यादा ही किया जाता है.

अंग्रेजी सीखने के नाम पर अंग्रेजियत का जहर नौनिहालों के मस्तिक में ऐसे उतारा जाता है, जिससे वह मातृभाषा व अपनी संस्कृति से विमुख होकर उसे हेय दृष्टि से देखने लगते हैं. उन्हें श्रेष्ठ जनों के पैर छूना भी नागवार गुजरता है, पैर छूने के बदले घुटने छूकर ही काम चलाते हैं. गुलामी के चिन्हों को ढ़ोने में ना जाने क्यों वे गौरव का अनुभव करते हैं.

जहां एक ओर सरकारी शिक्षक बनने के लिए प्रत्याशी को कई चरणों की कठिन प्रतियोगिता परीक्षाओं में पास होना पड़ता है, फिर भी सरकारी विद्यालयों की छवि समाज की नजर में गिर चुकी है.

शिक्षा के गुणवत्ता का स्तर शिक्षकों की योग्यता पर निर्भर है. निजी विद्यालय में अधिकांश में शिक्षक नियुक्ति की कोई मानक प्रक्रिया नहीं होती. सरकारी संस्थानों में योग शिक्षकों का चयन सरकार की नीति और नीयत पर निर्भर करता है. जब नीति सही होगी तभी आदर्श स्थिति का निर्माण संभव है. अन्यथा भगवान ही मालिक है. निजी शिक्षण संस्थान तो शिक्षा की दुकान ही जान पड़ती है. सरकार भी अब उसी मार्ग पर चल रही है. निजी शिक्षण संस्थान किसी की निजी संपत्ति की तरह ही चलाए जा रहे हैं. इन संस्थानों में लगभग सारे नियम को ताक पर रख दिया जाता है. शिक्षा बोर्ड ऐसे संस्थानों को आंखें मूंद कर मान्यता दे देते हैं. जो एक गंभीर संकट है. चाहे संस्थान मान्यता के मानक को पूरा करते हो या नहीं.

ऐसे संस्थानों में न तो शिक्षक नियुक्ति की कोई मानक प्रक्रिया और ना ही शिक्षकों के हित की चिंता ओर न ही छात्र शिक्षक मानक अनुपात का उचित पालन होता है. अधिकांश विद्यालय में स्मार्ट क्लास कागज पर चल रहे हैं. निजी विद्यालय प्रबंध द्वारा नियमों का खुलेआम उल्लंघन बहुत सामान बात है. आजकल शिक्षा बाजार के किसी उत्पाद की तरह, संस्थान उत्पाद विक्रय केंद्र की तरह और शिक्षक एक सेल्समैन की तरह ही हो चुके हैं.संपूर्ण आधारभूत संरचना से युक्त विद्यालयों को तो हम उंगली पर गिन सकते हैं. सरकारी और निजी संस्थानों के चक्रव्यूह ऐसी व्यवस्था बना दी है, जहां लगभग शिक्षा देने का स्वांग किया जाता है. लोगों के मन में एक धारणा बन गई है कि स्तरीय शिक्षा केवल निजी विद्यालय में ही मिल सकती है.

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि यदि केवल निजी विद्यालयों के दम पर ही शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाया जा सकता है तो इस संदर्भ में हमें फ़िनलैंड जैसे छोटे देशों से प्रेरणा ग्रहण की जानी चाहिए. यह एक भी निजी विद्यालय नहीं चलते हमारे यहां शिक्षकों से सरकार शिक्षण कार्य कम और गैर शैक्षणिक कार्य अधिक करवाती है. निजी विद्यालयों में एक ही शिक्षक पर कई विषयों को पढ़ाने का बोझ जबरन दाल दिया जाता है. ऐसी परिस्थिति विद्यालयों में बनाई जाती है कि अंग्रेजी,गणित और विज्ञान के अतिरिक्त अन्य विषय महत्वहीन हो. निजी विद्यालयों की नीति कॉरर्पोरेट जैसी, जहां यह धारणा प्रबल होती है कि यदि न्यूनतम खर्चों से अधिकतम काम हो सकता है तो खर्चे में वृद्धि क्यों? जब कम वेतन पर शिक्षक व अन्य कर्मी काम करने को तैयार ही हैं तो अधिक वेतन देने की कोई जरूरत नहीं है. सरकारी और निजी तंत्र में एक की नीति दोषपूर्ण है तो दूसरे की नियत में खोट है. दोनों संस्थानों के चलने से कुछ परिवारों की तो चांदी जरूर है. दोनों प्रकार के संस्थानों के चलने से कुछ लोगों को धन, कुछ को प्रतिष्ठा, और कुछ प्रसिद्धि मिली. यदि किसी को कुछ नहीं मिलता तो वह है बच्चा. बच्चे को समुचित और उपयोगिता युक्त शिक्षा आज तक नहीं मिली.

बच्चों को मिला पोशाक, साइकिल, भोजन, स्वास्थ्य सेवा तथा बहुत कुछ. सरकारी और निजी संस्थानों के मकड़जाल में उलझकर जैसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा विलुप्त हो गई. संस्थानों की वृद्धि वैज्ञानिक तकनीकी विकास के बाद भी ऐसी व्यवस्था बनाई गई जिसमें शिक्षा का अर्थ मात्र कक्षा में दी जाने वाली शिक्षा मत मान लिया गया ऐसी व्यवस्था में ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण प्रमाणपत्रों को मान लिया गया.
इस संदर्भ में सरकारी और निजी संस्थाओं की स्थिति पर देश में एक समान ही जान पड़ती है जो चिंता बढ़ाती है.