अनुज अवस्थी: 1857 का वो दौर जब भारत पर ब्रटिश कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी की हुकूमत थी। भारत वर्ष का हर नौजवान, बूढ़े, बच्चे, महिलाएं सब के सब अंग्रेजों की गुलामी करने के लिए मजबूर थे। उस दौर में ये गोरे (अंग्रेज) भारतीय नागरिकों का हर तरीके से जमकर शोषण किया करते थे।और भारतवासियों को न चाहकर भी जिल्लत भरी जिंदगी जीनी पड़ती थी। दरअसल इन गोरों ने भारत को व्यापार का अड्डा बना लिया था। सोने की चिड़िया कहा जाने वाला ये भारत दिन प दिन खोखला होता जा रहा था। ईस्ट इंडिया कंपनी व्यापार के जरिए भारत को लूट रही थी। दुखद बात ये थी कुछ लालच मात्र के लिए भारतीय राजा रजवाड़े इस सब में अंग्रेजों का साथ दिया करते थे।
ब्रटिश कंपनी ईस्ट इंडिया कंपनी में भारी तादात में सिपाईयों की फौज थी। जिसमें सबसे निचले औधे पर भारतीय नागरिकों को रखा गया था। उन से जमकर काम लिया जाता था। और उनकी कोई अंग्रेज इज्जत भी नहीं करता था। दरअसल अंग्रजी अधिकारी भारतीयों के लिए कुत्ता जेसे शब्दों का प्रयोग करते थे। उस दौर में भारत गुलामी के साथ-साथ जिल्लत भरी जिंदगी जी रहा था इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। जैसे-जैसे समय बीत रहा था अंग्रेजी सेनिकों का अत्याचार भारतीय नागरिकों पर बढ़ता जा रहा था।
1857 का मई का महीना जब ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज के लिए नए किस्म की बंदूके और गोला बारुद मगाए गए। इन नए साजो सामान में एक नए किस्म का कारतूस भी मगाया गया था, जिसे चलाने से पहले उस पर लगी परत को मूंह से छुटाना पड़ता था और फिर बाद में बंदूक में डालकर चलाया जाता था। नए किस्म के कारतूस और गोला बारुद आने के बाद भारतीय नागरिकों और उन सिपाईयों जो ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम करते थे एक अजीब सी सुगबुगाहट हुई। लोगों का कहना था कि नए कारतूसों पर सुअंर और गाय की चरबी चड़ी हुई है।
इस बात को सुनकर भारतीय नागरिकों ने चिंता जाहिर की। क्योंकि ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में शामिल कुछ भारतीय मुसलमान और कुछ हिंदु थे। गाय को हिंदु धर्म के लोग पवित्र मानते थे और सुंअर की चर्बी को मुसलिम समुदाय के लोग हराम यानि कि अपवित्र मानते थे। ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए काम कर रही फौज में एक मंगल पांडे नाम का सिपाही था। जिसने ब्रटिश सरकार से कहा कि हम भारतीय इस तरीके का कारतूस और गोला बारुद का इस्तेमाल नहीं कर सकते। ये हम भारत वासियों की सभ्यता के खिलाफ है।
हालांकि शुरुआती दौर में तो अंग्रेजी अधिकारियों ने ये झूंठ बोलकर बहला दिया कि कारतूसों पर किसी भी प्रकार की चरबी नहीं चड़ी है। लेकिन कुछ समय बाद लोगों को विश्वास हो गया कि गोरों ने झूंठ बोलकर उनके साथ छल किया है। जिसके बाद मंगल पांडे के नाम के सिपाही ने ब्रटिश कंपनी के खिलाफ बगावत शुरु कर दी। मंगल पांडे ने सभी भारतीय फौजियों से चरबी चड़े कारतूसों और गोला बारुद का बहिष्कार करने की अपील की। जिसके बाद ये बगावत अंग्रेजो के खिलाफ क्रांति का रुप लेने लगी।
अब भारतीय रियासतवारों को भी अहसास होने लगा था कि ये गोरे भारतवर्ष को अंदर ही अंदर खोखला कर रहे हैं। अतः देशी रियासतों एवं नवाबों में कंपनी के विरूद्ध गहरा असंतोष फैला। ब्रटिश शासको ने बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब के साथ भी बड़ा दुर्व्यवहार किया। नाना साहब की 8 लाख रुपए की पेंशन बंद कर दी गई। फलतः नाना साहब अंग्रेजों के शत्रु बन गए और उन्होंने 1857 ई. की क्रांति का नेतृत्व किया। 10 मई 1857 जिस दिन हिंदुस्तान की आजादी की गदर गाथा का आगाज हुआ।
इतिहास कारों का मानना है 1857 की क्रांति में देश के आजाद होने की सुगबुगाहट भी दिखाई दे रही थी। रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे, नाना साहेब ने क्रांति की चिनगारी को दिल्ली तक पहुंचाया। बहादुर सिपाही मंगल पांडे ने ब्रटिश हुकूमत का जमकर विरोध किया। इस विरोध के दौरान मंगल पांडे ने एक गोरे अधिकारी को गोली मार दी। जिसके बाद ब्रतानियां हुकूमंत ने मंगल पांडे को फांसी की सुजा सुना कर सूली पर लटका दिया। मंगल को फांसी होने के बाद भारतीय नागरिकों के आक्रोश को ब्रटिश सरकार झेल न सकी।
दोनों गुटों के बीच जमकर लड़ाई हुई। और आखिर में तमाम भारतीयों के बलिदान के बाद अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा। कुछ इतिहासकारों ने 1857 की उस क्रांति को ‘सिपाहियों का विद्रोह’ अथवा ‘सामन्ती विरोध’ भी कहा है लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों की व्यवस्था के खिलाफ सभी वर्ग के लोगों ने एक साथ मिलकर डटकर मुकाबला किया, और अंग्रेजों को देश से खदेड़ने में कामयाब हुए।