नई दिल्ली: बीबीसी  के मुताबिक सुप्रीम कोर्ट के शीर्ष पांच जजों में से चार ने चीफ़ जस्टिस दीपक मिश्रा को चिट्ठी  लिखकर शीर्ष अदालत की ओर से पास कुछ आदेशों को लेकर चिंता जताई है उनका कहना है कि इन आदेशों की वजह से न्यायपालिका के संचालन पर बुरा असर पड़ा है। चलिए आपको बताते हैं कि वो पत्र कुछ इस प्रकार से है।

डियर चीफ़ जस्टिस,

बड़ी नाराज़गी और चिंता के साथ हमने ये सोचा कि ये पत्र आपके नाम लिखा जाए, ताकि इस अदालत से जारी किए गए कुछ आदेशों को रेखांकित किया जा सके, जिन्होंने न्याय देने की पूरी कार्यप्रणाली और हाईकोर्ट्स की स्वतंत्रता के साथ-साथ भारत के सुप्रीम कोर्ट के काम करने के तौर-तरीक़ों को बुरी तरह प्रभावित किया है।

कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास में तीन हाईकोर्ट स्थापित होने के बाद न्यायिक प्रशासन में कुछ परंपराएं और मान्यताएं भलीभांति स्थापित हुई हैं. इन हाईकोर्ट्स के स्थापित होने के लगभग एक दशक बाद सुप्रीम कोर्ट अस्तित्व में आया।

भलीभांति स्थापित सिद्धांतों में एक सिद्धांत ये भी है कि रोस्टर का फ़ैसला करने का विशेषाधिकार चीफ़ जस्टिस के पास है, ताकि ये व्यवस्था बनी रहे कि इस अदालत का कौन सदस्य और कौन सी पीठ किस मामले को देखेगी. यह परंपरा इसलिए बनाई गई है ताकि अदालत का कामकाज अनुशासित और प्रभावी तरीके से हो. यह परंपरा चीफ़ जस्टिस को अपने साथियों के ऊपर अपनी बात थोपने के लिए नहीं कहती है.

इस देश के न्यायतंत्र में यह बात भी बहुत अच्छी तरह से स्थापित है कि चीफ़ जस्टिस अपनी बराबरी वालों में पहले है, वो उनसे न कम हैं न ज्यादा. रोस्टर तय करने के मामले में भलीभांति स्थापित और मान्य परंपराएं हैं कि चीफ़ जस्टिस किसी मामले की ज़रूरत के हिसाब से पीठ का निर्धारण करेंगे.

उपरोक्त सिद्धांत के बाद अगला तर्कसंगत कदम ये होगा कि इस अदालत समेत अलग-अलग न्यायिक इकाइयां ऐसे किसी मामले से ख़ुद नहीं निपट सकती, जिनकी सुनवाई किसी उपयुक्त बेंच से होनी चाहिए.उपरोक्त दोनों नियमों का उल्लंघन करने से गलत और अवांछित नतीजे सामने आएंगे जिससे न्यायपालिका की अखंडता को लेकर देश की राजनीति के मन में संदेह पैदा होगा. साथ ही नियमों से हटने के जो बवाल होगा, उनकी कल्पना की जा सकती है.

हमें ये बताते हुए बेहद निराशा हो रही है कि बीते कुछ वक़्त से जिन दो नियमों की बात हो रही है, उनका पूरी तरह पालन नहीं किया गया है. ऐसे कई मामले हैं जिनमें देश और संस्थान पर असर डालने वाले मुकदमे इस अदालत के चीफ़ जस्टिस ने ‘अपनी पसंद की’ बेंच को सौंपे, जिनके पीछे कोई तर्क नज़र नहीं आता. हर हाल में इनकी रक्षा की जानी चाहिए।