गुजरात चुनाव प्रचार में कुछ देखने को मिला हो या न मिला हो, लेकिन इन राजनेताओं ने संसदीय भाषा को तार-तार जरुर किया है। किसी भी राजनैतिक दल के रसूख दार ने एक भी बार गुजरात की समस्याओं के बारे में बात नहीं की जो कि बेहद दुखद और निंदनीय है।

कोई किसी को नीच बोल रहा है तो कोई महात्मा गांधी की तुलना चतुर बनिए से कर रहा है, तो कोई चाचा नहरु को लेकर ओछी टिप्पणी कर रहा है। हद तो तब हो गई जब एक प्रदेश के चुनाव में पाकिस्तान तक को घसीटा गया। ये कोई पहली बार नहीं है जब ऐसी असंवेदनशील भाषा का प्रयोग किया गया हो ये अपशब्द अक्सर राजनैतिक गलियारों में गूंजते रहते हैं। दरअसल हमारे लोकतंत्र की बागडोर उन राजनेताओं के हाथ में है जिन्हें लोकतंत्र की बिगड़ती दिशा का जरा भी बोध नहीं है।

महज सत्ता पर काबिज होने के लिए मुद्दों से इतर हटकर संवैधानिक भाषा का उलंघन करना कितना तर्कसंगत है ? तो क्या मान लिया जाए कि गुजरात का चुनाव गाली गलौज के बलबूते ही जीता जाएगा ? क्या राज्य के विकास मौडल को दरकिनार करने के बावजूद भी इन्हें जन समर्थन हासिल हो जाएगा ?राज्य के विकास और लोगों की समस्याओं को लेकर जनता के सवाल अनेक हैं लेकिन इन राजनेताओं के पास जवाब एक भी नहीं, अगर है कुछ तो वो हैं बड़बोले और झूठे वादे।