जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कहते है कि हम यहां 50 साल के लिए है. ऐसे बयानों के खतरे को समझिए. ये अतिआत्मविश्वास नहीं, कुटिलता और धूर्ततापूर्ण बयान है. जनता को, मीडिया को भाजपा अध्यक्ष से पूछना चाहिए कि क्या आप सुल्तान है, महाराजा है और भारत आपकी जागीर है, मतदाता आपके गुलाम है?

शशि शेखर

पितृपक्ष का महीना चल रहा है. आज के दौर में बहुसंख्यक संतानें सलाना अपने मृत मां-बाप को पानी तक देना (तर्पण) जरूरी नहीं समझती. ऐसे दौर में, भाजपा समर्थक अटल जी की मासिक पुण्यतिथि मना रहे है. कुछ तो मजबूरिया रही होंगी !

मेरी पीढी के लोगों ने सही मायनों में अटल जी के समय से ही राजनीति को समझना शुरू किया था. इस पीढी के लिए अटल जी एक प्रधानमंत्री के तौर पर कितने सफल रहे थे, कितने मददगार रहे थे, जानने के लिए आज के 35 से 40 साल के किसी भी युवा से बात कर लीजिए. तस्वीर साफ हो जाएगी. या फिर, इंडिया शाइनिंग गूगल कर के पढ लीजिए. एक अनुमान के मुताबिक, सरकार ने सरकारी एडवर्टिजमेंट पर तब 20 मिलियन डॉलर (रुपया) खर्च किया था. तब भी कुछ मजबूरियां थी !

मेरा व्यक्तिगत आकलन यही है कि अटल जी को इतिहास एक शानदार राजनेता के तौर पर याद करेगा. एक ऐसा राजनेता जो राजनीति की रपटीली राहों पर सबको साध कर चल सकता था. जिसमें सामूहिक राजनीति को नेतृत्व देने की क्षमता थी, शिष्टता थी, संस्कार था, विचार था. एक विशिष्ट राजनेता के ये गुण कम से कम आज नरेंद्र मोदी में तो नहीं ही है. मोदी एको अहं, द्वितीयो नास्ति, न भूतो न भविष्यति टाइप नेता रहे है. गुजरात से ले कर दिल्ली तक. मौजूदा एनडीए गठबन्धन के नेताओं की स्थिति ही देख लीजिए. वर्ना, अटल जी ने कैसे जयललिता, ममता, समता के बीच संतुलन साधा था, उस राजनीतिक कला की आज कल्पना करना बेमानी है. अब तो सीबीआई है, ईडी है, सीडी है. जाहिर है, कुछ राजनीतिक मजबूरियां होती है.

2014 से अब तक, भाजपा के लिए एक अनकहा, अलिखित श्लोक सर्वमान्य रहा है. मोदी इज भाजपा, भाजपा इज मोदी. लिखित नारा भी रहा, हर हर मोदी, घर घर मोदी. फिर क्या हुआ कि आज भाजपा “अजेय भारत, अटल भाजपा” की बात कर रही है. अब आप टल-अटल जैसे शब्दार्थ में उलझेंगे तो आप भोले है. भारत तो अजेय रहा ही है. लेकिन, भाजपा “अटल” कैसे हो सकती है? आज की भाजपा में तो अटल जी की राजनीतिक विरासत-परंपरा-शिष्टता-संस्कार का नामोंनिशान तक नहीं है. फिर, कैसे अटल भाजपा? कुछ तो मजबूरियां रही होंगी!

दरअसल, मोदी भाजपा से अटल भाजपा का ये रूपांतरण घोर राजनीतिक मजबूरी का नतीजा है. सोचिए, अगर 282 सीटें भाजपा को नहीं आती तो क्या मोदी जी के लिए शिव सेना, रामविलास पासवान, अकाली जैसे दलों-नेताओं को संभालना आसान होता. बिल्कुल नहीं. और यही डर भाजपा को 2019 को ले कर है. अटल जी के नाम पर मौजूदा नेतृत्व (मोदी) के चेहरे को और अधिक स्वीकार्य बनाने, उदार बनाने की एक कोशिश भर है अटल भाजपा का नारा. मैं आश्वस्त हूं कि आज की युवा पीढी और मेरी पीढी के लोग भी शायद ही अटल जी के नाम पर मोदी जी को सहानुभूति वोट दे! तो क्या अटल भाजपा का नारा मतदाताओं से अधिक सहयोगी दलों के लिए है? शायद हां.

वैसे राजनीतिक तौर पर मोदी भाजपा से अटल भाजपा का यह रूपांतरण कम से कम भारतीय लोकतंत्र के लिए तब और अहम और बेहतर बन जाता है, जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कहते है कि हम यहां 50 साल के लिए है. ऐसे बयानों के खतरे को समझिए. ये अतिआत्मविश्वास नहीं, कुटिलता और धूर्ततापूर्ण बयान है. जनता को, मीडिया को भाजपा अध्यक्ष से पूछना चाहिए कि क्या आप सुल्तान है, महाराजा है और भारत आपकी जागीर है, मतदाता आपके गुलाम है? आखिर ये विश्वास आप लाते कहां से है? ये अपने किए गए कामों पर भरोसे से आता है या किसी अन्य चीज से (ईवीएम!). या फिर आप सचमुच इस देश की जनता को मूर्ख समझते है?

अंत में, मोदी भाजपा से अटल भाजपा का यह रूपांतरण उस राजनीतिक मजबूरी की वजह से हुआ है, जो भाजपा नेतृत्व के लिए बुरे सपने लाता होगा. आज अमित शाह या प्रधानमंत्री जितने दावे कर ले, देश की जनता को आर्थिक राहत के नाम पर वे कुछ भी दे पाने में विफल रहे हैं. हां, सामाजिक संरचना को तोड कर, बंटवारे की राजनीति कर जरूर राज्य दर राज्य जीत दर्ज करते गए. लेकिन, म्यूनिसिपाल्टी लेवल का काम कर के कोई दल सोचे कि हम 50 साल सत्ता में रहेंगे, तो फिर तो कुछ गडबड है.

मुझे लगता है, इस बात का एहसास अन्दर ही अंदर अमित शाह और नरेन्द्र मोदी जी को भी होगा. शायद तभी उन्होंने इतनी बडी कुर्बानी दी है. मैं समझ सकता हूं कि कितने भारी मन से उन्होंने “अटल भाजपा” का नारा दिया होगा. राजनीतिक मजबूरियां जो न कराए. वर्ना जब एक प्रधानमंत्री, एक मुख्यमंत्री को भरी सभा में राजधर्म का पाठ पढा रहा हो, तब प्रधानमंत्री को बीच में टोकने की हिम्मत नरेन्द्र मोदी के अलावा कौन कर सकता था?