जब भी भारतीय लोकतंत्र के किसानों की बात किसी भी दल के राजनेता के मूंह पर आती है तो ऐसे शब्द निकलते हैं, जैसे किसानों का उनके अलावा कोई सगा है ही नहीं। ऐसा लगता है जैसे नेता जी की किसानों की समस्याओं के प्रति गहरी भावनाएं जुड़ी हों। लेकिन विडंबना ये है कि ये मंजर सिर्फ उतनी देर तक ही रहता है जब तक भारतीय मीडिया के कैमरे और माइक उनके मूंह पर लगे हों।

कैमरे हटते ही नेता जी अपने रास्ते और मीडिया अपने रास्ते। फिर किसानों की बात कौन करता है, और करें भी कैसे किसानों की बद से बद्तर हालत दिखाने से शायद TRP में इजाफा नहीं होता। और इसके साथ ही TRP को मद्देनजर देखते हुए चल देते हैं ऊंट-पटांग स्टोरी को कवर करने। और ये हाल सिर्फ एक मीडिया हाउस का नहीं है, ज्यादातर लकीर के फकीर हैं। इसका मतलब साफ है कि नेताओं और देश की मीडिया के कुछ हिस्से को छोड़कर उन्हें किसानो की बदहाली की चिंता रत्ती भर भी नहीं है।

जिस लोकतंत्र की जनसंख्या के प्रतिशत में किसानों का प्रतिशत 70 हो, और देश की आर्थिक व्यवस्था में भागीदारी बड़े पैमाने पर हो उसके बावजूद भी इन अन्नदातोओं की सुध लेने वाला कोई नहीं। दुनियां के सबसे बड़े लोकतांत्रिक कहे जाने वाले इस भारतवर्ष में किसानो की ये बदहाली हो, तो इसे न्यू इंडिया की चरमराती नींव नहीं तो और क्या समझा जाए।

अपने हक के लिए अपने ही वतन की उबड़ खाबड़ सड़को पर मार्च कर करके ये किसान टूटने के आखरी पड़ाव पर पहुंच चुका है। तपती दोपहरी में आंदोलन कर करके किसानों के पैर जली हुई लकड़ी के कोयले के माफिक हो चले हैं, लेकिन ये सरकारें हैं कि सुनती हीं नहीं। हालांकि कई दफे किसानों के वोटों को समटने के लिए सुनवाई के नाम पर वादे तो कर दिये जाते हैं लेकिन उस पर अमल करने वाला कोई नहीं। सरकारें आके चली जाती हैं और अन्नदाता जस का तस ठोकरें खाता दिखाई देता है। और सबसे दुख की बात ये है कि भारत का चौथा  स्तंभ कहा जाने वाला ये मीडिया भी इन किसानों के हक की आवाज को बुलंद करने की वजह अपने फायदे के लिए ऊल जुलूल चीजें दिखाकर TRP की होड़ करते दिखाई देते हैं। यानि की दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में कुछ तो गुण तो ढीला है ही बनिया उससे भी ज्यादा ढीला हो चला है।